Wednesday, June 6, 2007

३) कहत श्रुतिसार निर्धार करिकें....

राग : रामकली

कहत श्रुतिसार निर्धार करिकें ।
इन बिना कौन ऐसी करे हे सखी,
हरत दुख द्वन्द सुखकंद बरखें ॥१॥

ब्रह्मसंबंध जब होत या जीव को,
तबहि इनकी भुजा वाम फरकें ।
दौरिकरि सौरकर जाय पियसों कहे,
अतिहि आनंद मन में जु हरखें ॥२॥

नाम निर्मोल नगले कोउ ना सके,
भक्त राखत हिये हार करिकें ।
रसिक प्रीतम जु की होत जा पर कृपा,
सोइ श्री यमुना जी को रूप परखें ॥३॥

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