Saturday, May 12, 2007

४१) शरण प्रतीपाल....

राग : बिहाग

शरण प्रतीपाल गोपाल रति वर्धिनी ।
देत पती पंथ पिय कंथ सन्मुख करत,
अतुल करुनामयी नाथ अंग अर्धिनी ॥१॥

दीन जन जान रस पूंजकुंजेश्वरी ,
रमत रसरास पिय संग नीश शरादिनी,
भक्तीदायक सकल भवसिंधु तारीनी,
करत विध्वंस जन अखिल अघ मर्दीनी॥२॥

रहत नंद सुनू तट निकट नीसदीन सदा,
गोपगोपी रमत मध्य रसकंदिनी,
कृष्ण तन वरन गुणधर्म श्रीकृष्ण के,
कृष्ण लीलामयी कृष्ण सुखकंदिनी ॥३॥

पद्मजा पाय तू संगही मुररिपू,
सकल सामर्थ्यमयी पाप की खंडीनी,
कृपारस पूर्ण वैकुण्ठ पद की सीढ़ी,
जगत विख्यात शिव शेष शिर मंडीनी ॥४॥

पर्यो पद कमलतर और सब छांडके,
देख दृग कर दया हास्य मूख मंदिनी,
उभय कर जोड़ कृष्णदास विनंती करे,
करो अब कृपा कलिंदगिरी नंदिनी ॥५॥

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